सिर्फ पीने के लिए पानी ही तो माँगा था
मैंने | कह देता ,घर में पानी नहीं है | हृदय इतना दुखी तो न होता | पर उसने मेरे
सीने में अस्पृश्यता का तीक्ष्ण हत्यार भोंक ही दिया था | और मैं कुछ भी न कर पाया
था | खड़ा था खामोश | अचानक किसी ने हृदय को घायल करने से संवर नहीं पा रहा था |
मैं महसूस कर रहा था | किसी ने मेरे पैरो तले की जमीन को खिंच लिया हैं | और मैं आधारहीन
हवा में हवा बन लटक रहा हूँ | मुझ में मानो प्राण ही शेष न रहे थे | उस दिन सूर्य
आग बरसा रहा था | सूर्य की किरने आग की तलवार बन शरीर को झुलसाते हुए आहत कर रही
थी | शरीर के भीतर का पानी पसीने की बूंदों दवारा सूखता जा रहा था | शरीर में पानी
की कमी होने के चलते मुह और गला बुरी तरह से सूख रहा था | प्यास बहुत लग रही थी |
रूम अब करीब ही था | नांदेड जिले के तहसील किनवट की बरसात जितनी प्रसिद्ध हैं,
उतनी ही गर्मी भी प्रसिद्ध थी | शरीर तेज धुप को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था |
चक्कर आने को हो रही थी | रूम अब नजरों के सामने थी | कुछ ही क़दमों की दूरी बाकी
थी | पर उस समय यह कुछ ही कदम कई किलो मीटर लंबे दिखाई दे रहे थे | मैं नहीं चल
रहा था | बल्कि मेरा शरीर मानो अपने आप चल रहा था | आखिरकार मैं रूम पर पहुँच ही
गया था |
मैंने रूम का दरवाजा कैसे खोला और मैं
भीतर कैसे गया मुझे पता ही नहीं चला था | मैं जैसे ही भीतर गया हाथ में पकड़े हुए
कितबों को नीचे रखा | और रूम के एक कोने में पानी से भरा हुआ जग रखा था | उस और ऐसे
लपका जैसे कोई कई दिनों से भूखा व्यक्ति खाने को देख लपकता हैं | मैंने तेज गति से
अपने कदमो को बढ़ाया और नीचे रखे हुए जग को दोनों हाथों से उठाया और उसका ढक्कन
जल्दी से निकाल दिया | उस समय ढक्कन भी नहीं निकल पा रहा था | न जाने वह कैसे
पक्का बैठ गया था | कहा जाता हैं ना मुसीबत में और भी मुसीबत आ जाती है | पर मैंने
ढक्कन निकालने में भी कामयाबी पा ली थी | ढक्कन को नीचे फेक दिया था | दोनों हाथों
से जग को मुह की और ले आया था | उस समय ग्लास होते हुए भी मैं जग से ही पानी पीने
की चेष्टा कर रहा था | मुह की दिशा आसमान की और थी | और जग की उसके उपर | जग से
पानी की पहली धारा ने जैसे ही मेरे मुह का स्पर्श किया ही था कि मैंने जिस फुर्ती से
जग पानी पीने के लिए उठाया था, उसी फुर्ती से मैंने उसे फेक दिया था | जो दीवार से
टकरा कर नीचे गिर गया था | दीवार से टकराने के कारन वह पानी सारे रूम में फैल गया
था | जग का साईज बड़ा होने से उसमें पानी भी ज्यादा बैठता था | सो मेरा बिस्तर गिला
हो गया था | किताबों पर भी पानी पड़ गया था | उसके कुछ छींटे मेरे शरीर पर भी पड़
गये थे | जिससे मेरे कपड़े भी भीग गये थे | जग का पानी गर्म था | वह उबल रहा था |
रूम पहली मंजिल पर था | आर.सी.सी.का होने से और भयानक धुप होने से रूम भी गर्म हो
गई थी | इसमें प्लस्टिक के जग की क्या बिसात थी | वह भी उबल रहा था | बेसब्री से
मैं पानी पी रहा था और उस पानी ने मेरें
मुह को बुरी तरह से झुलसा दिया था | मुह जल रहा था | कुछ समझ नहीं आ रहा था | और
उधर जग ने सारा रूम भी गिला कर दिया था | दर्द तो बेहद हो रहा था पर वह दर्द
आनेवाले दर्द से कम ही था | मुझ पर उस दिन संकट पर संकट आ रहे थे | पता नहीं ऐसा
क्यों हो रहा था | शायद वह आनेवाले संकट की पूर्व सूचना दे रहा था | मन बार-बार मानो कह रहा हो कि बेटा यह दर्द तो कुछ भी नहीं | तुझे और एक दर्द
का सामना करना हैं | सो और मुझे आने वाले सकट का सामना करने के लिए भी तैयार रहना
था | पर मुझे यह पता नहीं था कि आनेवाला अब कोनसा संकट है | जिसे अभी झेलना बाकि
हैं | जग दीवार से टकराकर नीचे गिरने के बावजूद भी वह फर्श पर सीधा खड़ा था | और
उसमें अभी कुछ पानी शेष था | मानो वह मुझे चिढ़ा रहा हो |
मैं अक्सर कॉलेज जाने से पहले सुबह–सुबह
नल का पानी भर लेता था | क्योंकि अब पानी गया तो कल तक ही प्रतीक्षा करना पड़ेगा |
सो उस पानी से दिनभर और रात तथा नल को पानी आने तक काम चलाना पड़ता था | उस समय मैं
किनवट के बलिराम पाटिल कॉलेज में लिव वेक्न्सी पर पूर्ण कालिक हिंदी अध्यापक बन कर
आया था | अभी मुझे वहाँ आये पांच महा हो गए थे | मुझे नांदेड से मेरे ही कॉलेज के
एक अध्यापक सरस्वती विद्या मंदिर,किनवट से जो मुझे बेहद चाहते थे | उन्होंने ही
मुझे उस कॉलेज पर बुलाया था | लिव वेक्न्सी का समय अभी खत्म होने के लिए एक माह
शेष था | यह मेरा किनवट में आखरी महिना था | वैसे मेरा बचपन यहीं किनवट में बिता
था | वहाँ एम्.ए.की पढाई न होने के कारण मुझे नांदेड जाना पढ़ा था | वहाँ मैंने
प्रसिद्ध पीपल्स कॉलेज से हिंदी में एम्.ए किया था | संयोग वश मेरे पिताजी का
तबादला नांदेड हो गया था | सारी समस्या का निराकरण हो गया था | सो उस के बल बूते
यहाँ किनवट में आ गया था |
मैं पानी से झुलसाने के कारण दर्द से प्यास भूल–सा
गया था | पर दर्द जैसे ही कम हुआ फिर से प्यास लगना शुरू हो गई थी | पानी तो गर्म
था | ९० प्रतिशत पानी नीचे गिर चूका था और १० प्रतिशत पानी अभी उस जग में बाकि था
| पानी गर्म होने से वह पानी पीने के बारें में मैं सोच भी नहीं सकता था | वह पल
मेरे यादों में दर्द के शाही से अंकित हो चूका था | सो उसे मैं कैसे भूल सकता था |
प्यास तो लग रही थी और पानी भी गर्म था | अब क्या किया जाये | मैंने अपना हाथ सर
पर रख दिया | पर अचानक मुझे याद आया की हमारे पड़ोस में देशमुख जी रहते हैं |
देशमुख उन्हें प्राप्त उपाधि थी | जो उनके खानदान में उनके दादा–परदादा को मिली थी
| वे जाति से ब्राह्मण थे | उन्होंने बताया की पास के ही प्रसिद्ध शहर के राजसी
खानदान से हैं | इसके लिए वे एक पुराना
चित्र दिखाया करते थे | जिसमें उनके माता पिता सिहांसन पर बैठे हैं और वे उनके
पीछे राजकुमारों से वस्त्र परिधान कर खड़े थे | पता नहीं वह सच था या झूठ पर उनकी
बातों पर यकीन करने के आलावा कोई उपाय भी तो नहीं था | मैंने जग उठाया और देशमुख
जी के घर की और निकल पड़ा |
मैं देखमुख जी के पास पानी माँगने आया
था | दरवाजा खुला था | मैंने दरवाजे पर
दस्तक दी | और
‘’देशमुख सर ...देशमुख सर
..’’ की आवाज लगाई थी |
दूसरी बार आवाज लगाते ही
भीतर से आवाज आयी थी |
‘’कोन हैं ?’
मैंने जवाब स्वरूप कहा ‘’
जी सर, मैं हूँ |’’
‘’मैं हूँ कोन ?’’ प्रति
आवाज आयी थी |
मैंने कहा ‘’सर , मैं हूँ
आपका पड़ोसी सुनील |’’
‘’अच्छा –अच्छा बंजारा,
थोड़ा रुको आ रहाँ हूँ |’’
‘’जी ‘’ मैंने कहा |
बहार आते ही उन्होंने
मुस्कुराते हुये पूछा था –‘’कैसे आना किया ?’’
इस पर मैंने जग दिखाते हुए
कहा था ,
‘’ सर ,मैं आप से पीने के
लिये पानी लेने आया था | क्या मुझे पीने के लिए ठंडा पानी मिल सकता है ?
सुबह
कॉलेज जाते समय जग में पानी भर कर तो रखा था | पर मैंने देखा कि जग में जो पानी
हैं वह बुरी तरहा से उबल रहा है | अब आप ही बतायें की मैं ऐसा पानी कैसे पी सकता
हूँ ? आप स्वयं इसे हाथ लगा कर तो देखें |’’
जैसे ही मैंने जग दिखाने के
लिए आगे बढाया ही था कि उन्होंने चेहरे पर नकली मुस्कुराहट चिपकाते हुए कहा था |
‘’ अरेरे ..रहने दो | तूम
कह रहे हो तो होगा ही गर्म ..मुझे तुम पर विश्वास है |
कोई
बात नहीं मैं पानी दे देता हूँ | तुम यहीं ठहरो |’’
और वह पानी लेने के लिये
भीतर चला गया था | मुझे पता था कि देशमुख जी के पास जरुर ठंडा पानी मिलेगा | पानी
को ठंडा करने के लिये उनके पास दो मिटटी के मटके थे | सो प्राकृतिक फ्रिज उनके पास
था | वे जहाँ रहते थे | वहाँ दो कमरे थे | वे भी मेरे ही जैसे किराये के कमरे में
रह रहे थे | वे भीतर के कमरे में पानी लाने के लिये गये थे | मैं बुरी तरह थका हुआ था | उस पर प्यास ..|
उन्होंने भीतर तक नहीं बुलाया था | वैसे भी जब भी मैं उन्हें आते जाते बात करता था
| तब भी उन्होंने कभी भीतर नहीं बुलाया था | और ना ही कभी चाय के लिए पूछा था |
वैसे मैं चाय तो नहीं पीता था | पर उन्होंने कभी पूछा भी तो नहीं था | उस दिन वह
कह देता झूट ही सही पर कहता कि थके हुए लगते हो ,तनिक बैठ जाओ | पर नहीं |
उन्होंने वहीँ उसी अवस्था में खड़े रहने के लिए कहा था | वैसे इंसान ने कभी ऐसी आशा-अभिलाषा
ही नही रखनी चाहिये जो कभी पूरी ही ना हो सकती हो | पर जो ना को हाँ में बदलते है,
लोग उन्हें ही याद रखते है | किन्तु यहाँ बात कुछ और थी | सो ऐसी बातों के लिये ही
मैंने आशा-अभिलाषा वाली बात कही है |
प्यास आपनी तीव्रता को अभिव्यक्त कर रही
थी | मैं बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था कि देशमुख जी कब मेरे लिये पानी लेकर
आयेंगे और मैं कब पानी पीऊंगा | उस समय हर सेकंड कई मिनटों के समान लग रहा था |
मुझे इन्तजार करते हुए पांच मिनट बित चुके थे | वे पाँच मिनट बाद बाहर आये थे |
पानी लाने के लिए इतना समय तो नहीं लगना चाहिये था | भीतर से पानी लाने के लिए
अधिक से अधिक एक मिनट का समय काफी था | किन्तु उन्हें बाहर आने में ज्यादा समय लग
गया था | क्योंकि वे पुराना लोटा और ग्लास ढूंड रहे थे | जब उन्हें वह मिला तब जाकर
उसमें पानी भर कर लाया था | एक हाथ में पानी से भरा लोटा और दूजे हाथ में खाली
ग्लास ले आये थे | लोटा पुराना और पिचका हुआ था | ग्लास भी कुछ ऐसा ही था | जो
मेरे जैसों के लिये ही ख़ास रखा गया था | उस समय मेरी नजर सिर्फ लोटे के भीतर के
ठन्डे पानी पर ही थी | मैंने बेसब्री से ग्लास की और हाथ बढ़ाया ही था कि उन्होंने
मुझे वैसे ही रुकने का संकेत करते हुए कहा था कि
‘’एक मिनट ..|’’
और उन्होंने ग्लास नीचे
जमींन पर रखते हुए कहा था ,
‘’अब उठाना ग्लास ..’’
मुझे कुछ समझ नही आ रहा था
कि, वे मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे है | कुछ पल ऐसा लगा कि हो सकता है कि वे मुझे
कुछ सिखा रहे हो | मैंने उनकी मुह की ओर देखा | इस पर उन्होंने बनावट मुस्कुराहट
चेहरे पर लाते हुए कहा था |
‘’ग्लास उठाओ ..पानी पीना
है ना ?’’
‘’हाँ ‘’ कहते हुए मैंने
जमीन पर रखा हुआ ग्लास उठाया | ग्लास खाली था | प्यास लग रही थी | और पानी उनके अन्य हाथ के मैले-कुचैले लोटे में था | उन्होंने
मुझे थोडा पीछे हटने के लिए कहा ,
‘’क्या तुम, थोड़ा पीछे हट
सकते हो ?’’
इतना कहना था कि मैं दो कदम
पीछे हट गया |
अब हम दोनों में लगभग एक
हाथ की दूरी बन गई थी | या यूँ कहे कि उन्होंने ही मुझे इतनी दूरी रखने के लिये
कहा था | वे मुझे जैसे-जैसे कह रहे थे, मैं भी वैसे ही करते जा रहा था | कुछ पल के
लिये बिना सोचे समझे | वैसे भी समझ कर, मैं कर ही क्या सकता था |
समय की आवश्यकता अनुसार मेरा शरीर व्यवहार कर रहा था | उसने लोटा आगे बढाया |
मैंने भी ग्लास आगे कर दिया | ग्लास का स्पर्श लोटे से होने ही वाला था कि
उन्होंने लोटे वाला हाथ झट से पीछे खिसकाते हुए कहा ,
‘’ग्लास थोडा नीचे करना |’’
मैंने फिर से उनके चेहरे की
ओर देखा | अब उनकी नकली मुस्कुराहट असली विकार में बदल रही थी | सो उनकी
मुस्कुराहट कम हो गई थी | अब की बार कुछ न बोलते हुए नजरों और भवों के इशारों से
उन्होंने पानी लेने के लिए कहा | अब लोटे और ग्लास में एक बालिश [बिलांग] का अंतर
था | लोटे से पानी की ठंडी धारा खाली ग्लास में पड़ रही थी | जैसे-जैसे ग्लास भर
रहा था | मन के किसी कोने में छोटी सी ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी थी | पर कुछ ही पलों
में मुझे अहसास होने लगा कि देशमुख जी मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों कर रहे हैं ? किस
लिए कर रहे है ? वह मुझे अहसास दिला रहा थे कि चाहे तूम जितना पढ़ लिख लो
तूम हमारी नजरों में अच्छुत थे , अच्छुत हो और अच्छुत ही रहोगे | हांलाकि
वह पढ़ लिख कर घर ही बैठा था | और अपनी पत्नी की तनख्वाह पर जीवन निर्वाह कर रहा था
| वह छूत-छात पर परदा डालने के लिए स्वयं को सफाई पसंद कहता था | इसी झूटे मुखौटे
के कारण ही लगी हुई नौकरी छोड़ वह घर पर ही गाँधी जी के चरखे से धागा बनाता था |
मैं जब भी उन्हें गाँधी जी के चरखे से धागा बनाते देखता तब उन्ह्से कहता ,
‘’सर, आज गाँधी जी के चरखे
पर धागा बना रहे हो ? भारत को आझाद हुए अब ५३ साल हो गये हैं | देश आज कहाँ से
कहाँ चला गया है | अब तो हमारा शासन हैं | और आप अब भी चरखे पर धागा बाना रहे हो ?
लगता है आप पर गाँधी जी की अच्छा ख़ासा प्रभाव पड़ा है |’’
इस पर वे कहते,
‘’ हाँ,गाँधी जी का प्रभाव
तो है | पर धागा बेचने के लिए बना रहा हूँ |
मैं अपने बनाये हुए धागे के बने वस्त्र ही
पहनता हूँ |’’
‘’सर ,तो क्या आप वस्त्र
बनाना भी जानते है ?’’
‘’नहीं, पर यह धागा मैं वस्त्र
बनाने वाले के पास भेजता हूँ | और वह मुझे वस्त्र बना कर भेजता है |’’
वास्तव में यह सब दिखावा था
| लोग उसे यह न कहे की पत्नी की कमाई खा रहा है | घर बैठ कर रहता है | इससे बचने
के लिए उसने यह मार्ग ढूंड लिया था | गाँधी जी भी ऐसे भक्त को देख कर धन्य ही हो
रहे होंगे | खैर .. पानी से अबतक ग्लास भर चूका था | उसके ऐसे बरताव से पानी की
प्यास न जाने कहाँ चली गयी थी | फिर भी वह
ग्लास मैंने मुह से लगाया था | पानी को गले से नीचे उतारने लगा था | एक–एक घूँट उस
दिन मुझे जहर के जैसा लग रहा था | जब मैं पानी पी रहा था | ऐसे में मैंने पानी पीते –पीते उसके चेहरे की ओर एक पल के लिए
नजर डाली थी | वह मुझे हिकारत भरी नजर से
देख रहा था | शायद उसे मेरा ग्लास को मुह लगा कर पानी पीना अच्छा नहीं लग रहा था |
जबकि ग्लास हमारे जैसो के लिए ही तो उन्होंने रखा था | पहले ही पानी का हर घूँट
जहर सा लग रहा था | इस पर उसका हिकारत भरी नजरों से मेरी ओर देखना ...पानी की बूंद
को पत्थर के टुकड़े समान बना रहा था | जैसे-जैसे पानी गले से पेट में उतर रहा था |
ठन्डे पानी से पेट में ठंडक महसूस होना चाहिए था पर वह ठंडी अनुभूति नही हो रही थी
| या यूँ कहे की उसकी हिकारत और छुआछुत की भावना का गर्म जहर मानो पेट में मिल गया
हो | पहले ही गर्म पानी से मुह झुलसा गया था | वह आग शांत होने न पायी ही थी कि यह
आग मुझे भीतर से बुरी तरह जला रही थी | जैसे ही ग्लास का पानी खत्म हुआ था |
मुझे पुन: उनसे पानी मागने की हिम्मत न
हुई थी | मांगता भी कैसे दोबारा जहर कोन पीना चाहता था | ग्लास का पानी जबतक खत्म
नही हुआ था, तबतक वह मुझे ताकता रहा था | जैसे ही पानी खत्म कर मैंने उनकी और देखा
तो उन्होंने जहर बुझी हँसी हँसते हुए कहा
था ,
‘’और चाहिये पानी ..पीओ
..पीओ और पानी है इसमें ..|’’
वास्तव में उन्हें उस लोटे
का पानी खत्म करवाना ही था | क्योंकि उनकी नजरों में वह पानी मेरा हो चूका था |
अर्थात अछूत हो गया था | सो वह पानी वे पुन: कैसे स्तमाल करते | मैंने ना में सर
हिलाते हुए इनकार कर दिया था | इस तरह का बरताव मेरे साथ पहले कभी नही हुआ था |
हालांकि वह पढ़ा लिखा था | हम आझाद भारत में इक्कीसवी सदी में साँस ले रहे थे | फिर
भी मेरे साथ ऐसा ...| मुझे लगा था कि
शहरों में ऐसा नहीं होता होगा | पर अब भी उसके जैसे लोग हमारे समाज में बाकी है | जो
बाहर से सभ्य तो हुए है, पर भीतर से वैसे ही रह गये जो हजारों सालों से थे | सिर्फ
शरीर बदला था पर मन और उनकी आत्मा वही थी | किनवट भले ही तहसील था | पर नांदेड
जिले के अन्य तहसीलों की तुलना में वह बड़ा था | अब तो उसे जिला बनाने की मांग तेज
गति से तुल पकड रही थी | वहाँ सभी लोग देशमुख जैसे नही थे | मेरे कई ब्राह्मण
दोस्त थे | ब्राह्मण अध्यापक थे | पर उनसे कभी मुझे इस प्रकार का व्यवहार नहीं
किया गया था | वे प्रगतिशील विचारों के थे | वे छूत-छात ,जाति-पाति जैसा भेद नहीं
करते थे |
उस दिन के बाद से मुझे देशमुख जी
से घृणा हो गई थी | पहले जैसा उत्साह अब नही रहा था | अनमने मन से सामने आ जाते तो
नमस्ते कर देता था | इससे ज्यादा बात करने का तो सवाल उठता ही नही था | मुझे कॉलेज
जाना हो तो या बाहर जाना हो तो उनका घर लांग कर ही जाना पड़ता था | क्योंकि उनका घर
रास्ते में ही पड़ता था | जब भी मैं उनके घर के सामने से गुजरता था | तब वह इस बात
का ख्याल रखता कि मेरे शरीर का स्पर्श न होने पाये | जब-जब भी वह ऐसा करता था | तब–तब
मेरा मन दुखी हो जाता था | सुबह कॉलेज जाते समय का उत्साह निराशा में बदल जाता था
| और सारा दिन वह दृश्य मेरे नजरों के सामने नाचता रहता था | मेरा मन पढ़ाने में
नही लगता था | और ना ही अन्य सहपाठियों से बातें करने में लगता था | सहपाठियों
द्वारा दो-तीन बार मेरा नाम लेकर पुकार ने के बाद ही, मैं उस अवस्था से बाहर निकल
पाता था | वह बरताव मेरा साये की तरह पीछा
करता था |
एक तो वह पानी वाली घटना और आये
दिन ऐसी कोई न कोई घटना होते रहते ही थी | एक दिन देशमुख जी सुबह-सुबह स्नान आदि
कर परली और मुह करके तुलसी की पूजा कर रहे थे | वे पूजा में मग्न थे | उनके मुह से
कुछ शब्द बाहर निकल रहे थे | पर उनकी आवाज नही आ रही थी | बीच ही में उन्होंने
अपनी आँखें बंद कर तुलसी वृन्दावन के सम्मुख अपने दोनों हाथ जोड़ खड़े हो गये थे |
मुझे कॉलेज के लिए देर हो रही थी | सो मैं जल्दी-जल्दी निपटाकर कॉलेज के लिए उनके
घर के समाने से जा रहा था | अनजाने में मेरे शरीर का स्पर्श उन्हें हो गया |
उन्होंने अपनी आँखे खोली मेरी और देखा | मुझे सामने पा कर उनके उज्वल चेहरे पर
क्रोध की रेखा ने जन्म ले लिया था | उस समय उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा था | क्यों
की उस दिन उनका मौन व्रत था | सो चेहरे और शरीर के हलचल से मैं समझ गया था कि वे
मेरे स्पर्श से नाराज हो गये है | उन्होंने झटसे हाथों के इशारे से मुझे सरकने के
लिए कहा था | मैं उनके पूजा में उस दिन बाधक बन गया था | सो वे फनफना रहे थे | वे
फनफना ते हुए आगे निकल गये थे | कुछ आगे जा कर उन्होंने मुड़कर मेरी और देखा | मुह
से कुछ बुदबुदाया और फिर आगे चले गये | आगे जा कर सीधे बाथरूम में घुस गये थे |
मुझे श्याम को किसी से पता चला था | वे आधे घंटे के बाद ही बाथरूम से बाहर निकल
पाये थे | आधे घंटे तक वे आपने शरीर को धोते रहे थे | उस स्थान को तो और अधिक धो
रहे थे | जिस स्थान पर मेरा स्पर्श हो गया था | पता चला की अधिक घिस-घिस कर धोने
से उस स्थान पर उन्हें जख्म हो गया था | सो मेरे स्पर्श ने उन्हें जख्मी कर दिया
था | बाहर और भीतर से ...| जानकार मुझे ख़ुशी भी हुयी थी और दुःख भी हुआ था | खुसी
इस बात की कि उन्हें जख्म हो गया था | और दुःख इस बात का कि उन्हें मेरे कारण दुःख
हुआ था |
वे अपने आप को मुझ से या मेरे
जैसों से इतना बचाकर रखते थे कि, यदि गलती से भी स्पर्श हो जाए या हमारी छाया भी
उन पर पड़ जाये, तो उन्हें स्नान करना पड़ता था | एक बार ऐसे ही किसी का स्पर्श हुआ
था और वे बाथरूम में तो घुस गये थे | पर बाथरूम में पानी ही नही था | दो दिनों से
नल को पानी ही नही आया था | सो वे सूखे बदन पर पत्थर ही रगड़ रहे थे | उन्होंने
अपने परिवार को भी उन जैसा ही बना रखा था | उनकी पत्नी को यह सब पसंद नही था | पर
पति की अवज्ञा कैसे की जा सकती थी |
डॉ.सुनील जाधव ,नांदेड [महाराष्ट्र]
चलभाष :-०९४०५३८४६७२
Suniljadhvheronu10@gmail.com
''मैं बंजारे का छोरा '' कहानी संकलन से